यहां बड़े-बड़े अफसर खुशी से बन जाते हैं फकीर, होता है कुछ ऐसा…

बड़े-बड़े अफसर, डॉक्‍टर-इंजीनियर और कारोबारी यहां फकीर बनते हैं। मन्‍नतें मांगी जाती हैं। पूरी होती हैं और फिर उन्‍हें निभाने का सिलसिला कभी सालों तो कभी उम्र भर चलता रहता है। कहा जाता है कि धार्मिक मन्नतों, मुरादों का अपना अकीदा है। औलाद के लिए मन्नतें मांग लीं तो उन्हें पूरी करने, निभाने का सिलसिला खानदानी चलता है। करबला की शहादत वाले मोहर्रम में भी कुछ ऐसा ही है।

मन्नतों से पैदा हुए बच्चे, बच्चियां अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर, कारोबारी, नौकरीपेशा हो जाएं तो भी मोहर्रम पर उन्हें फकीर बनना लाजिमी है। फकीरी वाला हरा, काला लिबास पहन ये मन्नती अफसर इमाम हुसैन के नाम पर भीख मांगने की मुराद को निभा रहे हैं। फकीर बनने के साथ ही मन्नत पूरी करने को सोने, चांदी का छल्ला या फिर पंजा चढ़ाया जाता है। पंजा करबला की जंग के दौरान इमाम हुसैन के परचम का ऊपरी हिस्सा होता था। उसे ही अलम कहा जाता है।

हजरत इमाम हुसैन की याद में बने ताजियों, इमामबड़ों पर मांगी गई मन्नतों में फकीरी की मन्नत सबसे अहम है। गोद भरने, सलामती की मन्नतें पूरी होने पर बच्चों को एक से लेकर तीन दिनों का फकीर बनाया जाता है। इमाम हुसैन के नाम पर फकीर बनने की मन्नत को पूरे दस साल, बीस साल या पूरी उम्र निभाने का सिलसिला चलता है।

मन्नतों से पैदा हुए बच्चे, बच्चियां अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर, कारोबारी, नौकरीपेशा हो जाएं तो भी मोहर्रम पर उन्हें फकीर बनना लाजिमी है। फकीरी वाला हरा, काला लिबास पहन ये मन्नती अफसर इमाम हुसैन के नाम पर भीख मांगने की मुराद को निभा रहे हैं। फकीर बनने के साथ ही मन्नत पूरी करने को सोने, चांदी का छल्ला या फिर पंजा चढ़ाया जाता है। पंजा करबला की जंग के दौरान इमाम हुसैन के परचम का ऊपरी हिस्सा होता था। उसे ही अलम कहा जाता है।

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